Sad Shayari
तुम्हारी तलाश में निकलूँ भी तो क्या फायदा..?
तुम बदल गए हो, खो गए होते तो और बात थी।
फलक के तारों से क्या दूर होगी जुल्मत-ए-शब,
जब अपने घर के चरागों से रोशनी न मिली।
तुझे फुर्सत ही न मिली मुझे पढ़ने की वरना,
हम तेरे शहर में बिकते रहे किताबों की तरह।
अधूरी हसरतों का आज भी इलज़ाम है तुम पर,
अगर तुम चाहते तो ये मोहब्बत ख़त्म ना होती।
राह-ए-वफ़ा में हम को ख़ुशी की तलाश थी,
दो कदम ही चले थे कि हर कदम पे रो पड़े।
सपनों से दिल लगाने की आदत नहीं रही,
हर वक्त मुस्कुराने की आदत नहीं रही,
ये सोच के कि कोई मनाने नहीं आएगा,
अब हमको रूठ जाने की आदत नहीं रही।
प्यार का रस्ता इतना भी दुश्वार नहीं था,
बस तुमको हमारी चाहत पे ऐतबार नहीं था,
तुम ही चल न सके हमारे साथ वरना,
हमें तो जान देने से भी इन्कार नहीं था।
रास्ते खुद ही तबाही के निकाले हमने,
कर दिया दिल किसी पत्थर के हवाले हमने,
हमें मालूम है क्या चीज है मोहब्बत यारो,
घर जला कर किये हैं उजाले हमने।
वो रोज़ देखता है डूबते सूरज को इस तरह,
काश… मैं भी किसी शाम का मंज़र होता।
ये तेरा खेल न बन जाए हक़ीकत एक दिन,
रेत पे लिख के मेरा नाम मिटाया न करो।
मिला क्या हमें सारी उम्र मोहब्बत करके,
बस एक शायरी का हुनर एक रातों का जगना।
बस ये हुआ कि उसने तकल्लुफ़ से बात की,
और हम ने रोते-रोते दुपट्टे भिगो लिए।
कल क्या खूब इश्क़ से इन्तकाम लिया मैंने,
कागज़ पर लिखा इश्क़ और उसे जला दिया।
औरों के पास जा के मेरी दास्तान न पूछ,
कुछ तो मेरे चेहरे पे लिखा हुआ भी देख।
टूट कर रह गया है खुद से रिश्ता अपना,
एक मुद्दत हुई कि देखा नहीं चेहरा अपना।
देखी है बेरुखी की आज हमने इन्तेहाँ,
हमपे नजर पड़ी तो वो महफ़िल से उठ गए।
क्या खूब ही होता अगर दुख रेत के होते,मुठ्ठी से गिरा देते… पैरो से उड़ा देते।
प्यास दिल की बुझाने वो कभी आया भी नहीं,
कैसा बादल है जिसका कोई साया भी नहीं,
बेरुख़ी इस से बड़ी और भला क्या होगी,
एक मुद्दत से हमें उसने सताया भी नहीं।
ये सिलसिला उल्फत का चलता ही रह गया,
दिल चाह में दिलबर के मचलता ही रह गया,
कुछ देर को जल के शमा खामोश हो गई,
परवाना मगर सदियों तक जलता ही रह गया।
रात भर मुझको ग़म-ए-यार ने सोने न दिया,
सुबह को खौफ़-ए-शब-ए-तार ने सोने न दिया,
शमा की तरह मेरी रात कटी सूली पर,
चैन से याद-ए-कद-ए-यार ने सोने न दिया।
था जहाँ कहना वहां कह न पाये उम्र भर,
कागज़ों पर यूँ शेर लिखना बेज़ुबानी ही तो है।
अब भी इल्जाम-ए-मोहब्बत है हमारे सिर पर,
अब तो बनती भी नहीं यार हमारी उसकी।
वो एक ख़त जो उसने कभी लिखा ही नहीं,
मैं रोज बैठ कर उसका जवाब लिखता हूँ।
रंज़िश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ,
आ फिर से मुझे छोड़ जाने के लिए आ।
इक झलक देख लें तुझको तो चले जाएंगे,
कौन आया है यहाँ उम्र बिताने के लिए।
मुद्दत से थी किसी से मिलने की आरज़ू,
ख्वाहिश-ए-दीदार में सब कुछ गँवा दिया,
किसी ने दी खबर कि वो आयेंगे रात को,
इतना किया उजाला कि घर तक जला दिया।
ये आरज़ू थी कि ऐसा भी कुछ हुआ होता,
मेरी कमी ने तुझे भी रुला दिया होता,
मैं लौट आता तेरे पास एक लम्हे में,
तेरे लबों ने मेरा नाम तो लिया होता।
वो दर्द ही क्या जो आँखों से बह जाए,
वो खुशी ही क्या जो होठों पर रह जाए,
कभी तो समझो मेरी खामोशी को,
वो बात ही क्या जो लफ्ज़ आसानी से कह जायें।
किसी को इतना मत चाहो कि भुला न सको,
यहाँ मिजाज बदलते हैं मौसम की तरह।
अब सोचते हैं लाएँगे तुझ सा कहाँ से हम,
उठने को उठ तो आए तेरे आस्ताँ से हम।
दस्त-ए-तक़दीर से हर शख्स ने हिस्सा पाया,
मेरे हिस्से में तेरे साथ की हसरत आई।
न हारा है इश्क़ और न दुनिया थकी है,
दिया भी जल रहा है हवा भी चल रही है।
अंजाम-ए-वफ़ा ये है जिसने भी मोहब्बत की,
मरने की दुआ माँगी जीने की सज़ा पाई।